Tuesday 5 July 2016

इस्लाम और आतंकवाद में फ़र्क तो सिर्फ और सिर्फ हुसैन से है।

आजकल पूरी दुनिया में ये चर्चा आम है की इस्लाम और आतंकवाद में, मुसलमान और आतंकवादियों में फ़र्क़ क्या है।और अक्सर लंबी चौड़ी बहस के बाद भी दुनिया भर का नेक सच्चा और असली मुसलमान सामने वाले को वो जवाब नहीं दे पाता जो बांग्लादेश के नौजवान फ़राज़ हुसैन ने दिया। फ़राज़ ने दुनिया को सन्देश दिया की मासूमों और मज़लूमों का बेगुनाहों का क़त्ल करने वाला मुसलमान हो ही नहीं सकता बल्कि मुसलमान वो है जो हक़ की ख़ातिर, इंसानियत की ख़ातिर, और दोस्ती की ख़ातिर हँसते-हँसते शहीद और क़ुर्बान हो जाये। बांग्लादेश की घटना में आतंकियों ने मासूमों का क़त्ल तो किया ही ,पर वो फराज़ को छोड़ कर इस्लाम को पूरी दुनिया में रुस्वा करना चाहते थे। लेकिन फ़राज़ ने ज़िल्लत की ज़िंदगी के मुक़ाबले इज़्ज़त की मौत को चुना और अपनी दोस्त तिरिषि जैन के लिए, दोस्ती के लिए, हक़ के लिए, इंसानियत के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी। क्योंकि फ़राज़ सिर्फ फ़राज़ नहीं बल्कि फ़राज़ हुसैन था। जी जहाँ हुसैन होंगे वहां आतंकवाद नहीं हो सकता और जहाँ आतंकवाद हो वहां हुसैन नहीं और जहाँ हुसैन नहीं वहां इस्लाम हो ही नहीं सकता। ख़्वाजा अजमेर चिश्ती बहुत पहले कह चुके कि हुसैन दीन हैं। आज से 1400 साल पहले यज़ीद और हज़रत इमाम हुसैन के बीच कर्बला में जंग हुयी। दोनों पक्ष नमाज़ पढ़ते थे, रोज़ा, अज़ान , दाढ़ी सब, पर यज़ीद आतंकी था उसने हज़रत इमाम हुसैन और उनको बेरहमी से क़त्ल किया तीन दिन का भूखा- प्यासा जो मुहम्मद साहब (स0) के नवासे और सर्वथा हक़ पर थे। कर्बला में जो हक़ के लिए शहीद हुये वो हुसैन थे मुसलमान थे और इस्लाम और इंसानियत के रक्षक जिन आतंकियों ने शहीद किया वो आज के आतंकियों की तरह ही मुसलमान का चोला पहने थे। और यज़ीद और आज के आतंकियों का आपस में वही रिश्ता है जो एक ज़ालिम का दूसरे ज़ालिम से पुश्तैनी ख़ूनी और ख़ानदानी रिश्ता होता है। पर एक अकेला फ़राज़ हुसैन उन बहुत से आतंकियों के मुँह पर कालिख़ पोत गया और इस्लाम और आतंकवाद के फ़र्क़ को समझा गया। सलाम है उस सच्चे मुसलमान फ़राज़ हुसैन को और सीरिया, इराक़, ईरान और कर्बला में आज भी हुसैनी होने के नाते आतंकियों से लड़कर शहीद हो रहे और उनके ज़ुल्म का शिकार भी। पर सच तो ये है की जब तक नामे हुसैन ज़िंदा है इस्लाम, इंसानियत और हक़ की ख़ातिर अकेले फ़राज़ जैसे लोग आतंक को बेनक़ाब और रुस्वा करते रहेंगे। चाहे उन्हें जान ही क्यों न क़ुर्बान करना पड़े। जो कोई खेल नहीं बल्कि हुसैनी जज़्बा है।

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