Wednesday 16 December 2015

टाकीज़-सुनहरे और बदलते वक़्त की दिलचस्प दास्ताँ।

बस यूं ही बैठे-बैठे ज़ेहन ने गुज़रे दौर का सफ़र तय किया।जब टाकीज़ और फिल्मों का ज़माना था।फ़िल्में मनोरंजन का एकमात्र साधन और टाकीज़ उनके प्रदर्शन का एकमात्र स्थान । टाकीज़ के मालिक का शुमार शहर के रईस और बड़े लोगों में होता था।जो एक दो टाकीज़ का मालिक हो वो सांसद-विधायक को और जो चार-छः टाकीज़ का मालिक हो राजनैतिक दल को चंदा देता था।मालिक और प्रबंधक तो दूर अगर गेटकीपर भी पहचान कर सम्मान दे दे तो बड़ी बात होती थी।और अगर प्रबंधक विशेष् व्यवस्था में अलग से एंट्री देकर बैठा दे और जलपान भी करा दे तो वो आदमी ऐंठ कर चलता था।आज महानगरों में बमुश्किल तमाम 5 या6 मल्टीप्लेक्स/मॉल होंगे तब महानगरों में 40-50 टाकीज़ होते थे।दोपहर का शो छात्रो-नौजवानो का मैटिनी-इवनिंग शो फैमिली और मॉर्निंग-नाईट शो विशेष् वर्ग का होता था।पहले दिन पहला शो देखना ऐसे था मानो ग्रीनिज़् बुक में नाम लिख जायेगा।एडवांस बुकिंग लाइन का लगना टिकटों का ब्लैक होना। फिल्मों का सिल्वर गोल्डन प्लैटिनम जुबली होना पुरानी बात हुइ। वक़्त बदला दौर बदला टी .वी
.के रास्ते  शुरू हुये सफ़र ने केबिल डिश कंप्यूटर इंटरनेट सी डी पेन- ड्राइव् की मंज़िल  पाई। पर इस पूरे सफ़र में फिल्मों का वजूद तो बाक़ायदा बचा रहा लेकिन मल्टीमीडिया और आधुनिक मोबाइल के दौर में टाकीज़ के वजूद ने दम तोड़ा और इतिहास के पन्नों की ज़ीनत बन गया। जो टाकीज़ कभी लैंडमार्क होता था।अब उसकी बिल्डिंग में शॉपिंग मॉल गोदाम कोल्ड स्टोरेज आदि खुल गये। अमिताभ बच्चन की जिन फिल्मों को स्कूल छोड़कर पैसा चुराकर और बड़ी मशक्कत के साथ लोगों ने देखा था अब उन्ही फिल्मों को आसानी से डिश टीवी पर देखकर अजीब सी अनुभूति होती है।तो कुल मिलाकर टाकीज़ कभी जिसका मनोरंजन की दुनिया में अपना एक बड़ा मुक़ाम था अब इस दौर में अन्तिंम सांसें गिन रहा है। टाकीज़ का स्वर्णिम युग समाप्त हुआ।

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