Sunday 20 December 2015

ख़त्म हुआ माहे-अज़ा हाय हुसैन अलविदा की गूंजी सदा।

यूं तो हज़रत इमाम हुसैन के चाहने वाले पूरे साल ग़म मनाते हैं। पर इस्लामिक कैलेंडर के माहे मुहर्रम की पहली तारीख़ से लेकर माहे रबि अव्वल की 8 तारिख तक यानि कुल दो महीना 8 दिन पूरी शिद्दत के साथ इमाम हुसैन का ग़म मानते हैं। इस दौरान शिया मुसलमानो के यहाँ शादी-ब्याह बर्थ-डे जैसे किसी भी ख़ुशी के कार्यक्रम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतना ही नहीं लाल गुलाबी कपड़ों से भी दूर सिर्फ काले कपडे पहनते हैं। आज के इस आधुनिक युग में भी ये क़ौम दो महीना ख़ुशी और उसके कार्यक्रम से कोसों दूर रहती है। यहाँ तक की महिलाएं अपनी चूड़ियाँ तोड़ देती हैं और साज-श्रृंगार से बाक़ायदा दूरी रहती है। इतनी कठिन तपस्या की आख़िर वजह क्या है। अब से 1400 साल पहले हज़रत मुहम्मद साहब (स0) इस दुनिया से रुख़सत हो चुके थे उनके नवासे(नाती) हज़रत इमाम हुसैन उस वक़्त के इमाम थे। उस वक़्त हुकूमत और राजपाट पर यज़ीद क़ाबिज़ था। जिसे आप आज के लादेन और बग़दादी का पूर्वज समझिये। जो दिखने में मुस्लमान का चोला पहने था लेकिन आतंकवादी और ज़ालिम था। उसने इमाम से कहा आप मेरी बैयत(समर्थन) कर दो। ये मुमकिन नहीं था इमाम ने इंकार किया उसने जंग की चुनौती दी। और कर्बला के मैदान में हज़रत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की जिसमे हज़रत मुहम्मद (स0) के घराने के लोगों की काफी संख्या थी को तीन दिन का भूख प्यासा रखकर शहीद कर दिया जिसमे 6 माह का  बच्चा भी था। शहीदों के लाशों को दफन भी नहीं करने दिया। ख़ैमों(कैम्पों) में आग लगा दी। और बचे हुये लोगों पर  महीनो लगातार ज़ुल्म किया। हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों ने क़ुरबानी दी शहादत दी भूखे प्यासे रहे  कष्ट सहा पर हक़ न्याय इंसानियत का साथ नहीं छोड़ा न ही ज़ुल्म और आतंकवाद के सामने घुटना टेका। इस्लाम और आतंकवाद को समझने के लिए इससे बेहतर मिसाल नहीं हो सकती। वर्तमान में जितने भी आतंकवादी संगठन हैं सब उसी यज़ीद आतंकवादी के वंशज हैं। इसी लिये हुसैनी हर साल पूरे मनोयोग से कर्बला की याद में ग़म मानते हैं ताकि हक़ इंसानियत मज़लुमियत न्याय सब्र बाक़ी रहे और ज़ालिम आतंकवादी बेनक़ाब होते रहें। असली इस्लाम पहचाना जाय। इसिलिय पूरी दुनिया में इमाम हुसैन के चाहने वालों की मस्जिदें इमामबाड़े और ज़िंदगियाँ इनके निशाने पर हैं। पर हुसैन वाले डरने वाले नहीं हर दौर में शहीद होते रहेंगे मगर हक़ न्याय इंसानियत और सच्चे इस्लाम के साथ रहेंगे। ज़िक्रे हुसैन करते रहेंगे और हर दौर के आतंकवाद पर लानत भेजते रहेंगे खुलकर जमकर आतंकवाद का विरोध करते रहेंगे। और आतंकवाद को बेनक़ाब करते रहेंगे ।
हज़रत इमाम हुसैन को इस मुल्क से बड़ी मुहब्बत थी। और यहाँ गमें हुसैन मनाने पर कोई पाबन्दी नहीं जबकि कई इस्लामी मुल्कों में है। जो हुसैनी फ़िक्र है वही इस्लाम की मूल आत्मा है। या हुसैन जय हिन्द।

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